देशद्रोह के दौर में अर्थव्यवस्था की परवाह किसे

मूर्ख दिवस (एक अप्रैल) से शुरू होने वाले साल के 12 महीनों के लिए केंद्र सरकार का बजट जल्द पेश होने वाला है. यह वित्त मंत्री अरुण जेटली का तीसरा बजट है.

इसके बाद 2019 के आम चुनाव के पहले अंतरिम बजट से पहले वह दो बजट और पेश करेंगे. लेकिन अर्थव्यवस्था शायद वह आखिरी चीज़ होगी, जो आबादी के बड़े पैमाने के दिमाग़ में है.

जाटों के आंदोलन ने अचानक उत्तर भारत के एक से ज़्यादा औद्योगिक इलाक़ों में उथल-पुथल मचा दी. वाहन निर्माण करने वाली असेंबली लाइन बंद हो गईं.

आम जनजीवन सिर्फ़ हरियाणा नहीं बल्कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के कई हिस्सों में बाधित हो गया. मगर राज्य सरकार की असमर्थता और केंद्र सरकार की इस आंदोलन की उग्रता और उससे बढ़कर इसके विस्तार का अंदाज़ लगा पाने में कमी की वजह से बहुत से लोगों का विश्वास हिला.

लेकिन पहले हैदराबाद और फिर दिल्ली में छात्र आंदोलन के बारे में यही नहीं कह सकते. सरकार के महत्वपूर्ण विभागों के कार्रवाई करने और न करने से साफ़ हो गया कि यह संघ परिवार के हिंदू राष्ट्रवादी एजेंडा को आगे बढ़ाने की सुचिंतित कोशिश है.

देश की आबादी को 'राष्ट्रवादी' और 'गैर-राष्ट्रवादी' दो हिस्सों में बांटने की बात पर आमतौर पर बोलने वाले प्रधानमंत्री की चुप्पी से ऐसे लोग एकजुट हो रहे हैं जो भारतीय जनता पार्टी से जुड़े हुए नहीं हैं. लेकिन इसका नरेंद्र मोदी पर शायद ही असर पड़ता हो.

यक़ीनन यह उनके बहुत अनुकूल रहेगा कि उनके सभी आलोचकों को 'गैरराष्ट्रभक्त' बता दिया जाए. इस तरह वह अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश जूनियर के पदचिह्नों पर चलेंगे, जिन्होंने पूरी दुनियी को दो हिस्सों में बांट दिया थाः या तो आप हमारे साथ हैं या हमारे ख़िलाफ़ हैं.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अच्छे प्रचारक की तरह, जो वे हैं, उनका साफ़ मानना है कि उनकी भव्य योजनाओं के आगे कोई विरोध नहीं आना चाहिए.

भाजपा के चार 'नाराज़ वृद्ध' (एलके आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, शांता कुमार और यशवंत सिन्हा) और दोस्त (अरुण शौरी और गोविंदाचार्य) और कई अन्य विरोधी (जिनमें शत्रुघ्न सिन्हा और कीर्ति आज़ाद शामिल हैं) को दरकिनार कर दिया गया है.

सरकार में सबसे बड़े नाम- अरुण जेटली और राजनाथ सिंह समेत पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के पास भी इसके अलावा कोई विकल्प नहीं कि वह भारत के दूसरे गणतंत्र, जो अब कांग्रेस-मुक्त भारत बनने की ओर अग्रसर हैं, के सर्वोच्च नेता का दीन-हीन सहायक बने रहें. वे सभी जानते हैं कि बॉस कौन है और रणनीति एकदम साफ़ है.

एक चीज़ तो साफ़ है कि बजट सत्र लगातार बाधित रहने वाला है. अगर सरकार को आम बजट पेश करने भी दिया जाता है, तो भी यह शीत सत्र की तरह पूरी तरह बेकार रह सकता है.

तब मोदी अपने राजनीतिक विरोधियों पर देशहित के ख़िलाफ़ काम करने का आरोप लगा सकते हैं जिन्होंने सरकार को जीएसटी बिल पेश नहीं करने दिया, एक नया दिवालिया क़ानून लागू करने नहीं दिया और एक रियल एस्टेट रेगुलेटरी अथॉरिटी नहीं बनाने दी.

बेशक ये भी कोशिशें होंगी कि इन कुछ विधायी प्रस्तावों को धन विधेयक में बदल दिया जाए, जिन्हें उच्च सदन से पारित करवाने की ज़रूरत नहीं होती क्योंकि भाजपा का राज्यसभा में बहुमत नहीं है और शायद अगले तीन साल में हो भी न पाए.

मोदी के भक्त यक़ीनन उम्मीद कर रहे होंगे कि इसके बाद होने वाला तमाशा भारतीय अर्थव्यवस्था की वर्तमान हालत और इस तथ्य से ध्यान हटा देगा कि पर्याप्त मात्रा में नौकरियां इसलिए नहीं पैदा हो पा रही हैं क्योंकि एक तो निजी निवेश नहीं हो रहा है और दूसरा आधारभूत ढांचा (बिजली, सड़क और पानी) लगातार चरमरा रहा है.

इतिहास में पहली बार पिछले करीब डेढ़ साल के अधिकांश समय थोक मूल्य सूचकांक नकारात्मक रहा है जबकि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक बढ़ रहा है, मुख्यतः खाद्य पदार्थों की वजह से.

यह अजीब इसलिए भी है कि डीज़ल (जो मुख्यतः वस्तुओं के परिवहन के लिए इस्तेमाल होता है) और पैट्रोल की क़ीमतें मोदी सरकार के कार्यकाल में कम हुई हैं. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल की क़ीमतें ढह गई हैं लेकिन भारत सरकार ने तेल की क़ीमतों में कमी का बमुश्किल एक चौथाई ही उपभोक्ताओं तक पहुंचाया है.

पैट्रोलियम उत्पादों पर बार-बार उत्पाद शुल्क बढ़ाकर सरकार ने अप्रत्यक्ष करों में अप्रैल-दिसंबर 2015 की अवधि में एकतिहाई की वृद्धि हासिल कर ली.

यह दावा भी बहुत बढ़ा-चढ़ाकर किया गया है कि भारत दुनिया का एकमात्र बड़ा देश है, जिसकी अर्थव्यवस्था करीब सात फ़ीसदी की दर से बढ़ रही है.

इसके बावजूद यह तथ्य भी कायम है कि सरकार के राष्ट्रीय आय के आंकड़ों की विश्वसनीयता पर खुद रिज़र्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन और वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने सवाल उठाए हैं.

ठीक उसी तरह जैसे मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल के 10 साल में हुआ था, जब देश की जीडीपी प्रभावशादी दर से बढ़ी थी और राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को लगभग हासिल कर लिया जाता था. हालांकि उसी समय नौकरियां कम पैदा हुईं और आय और संपत्ति का अंतर बढ़ गया.

जेटली यक़ीनन व्यावसायिक समुदाय (जो मोदी सरकार के क़रीब दो साल के कार्यकाल से काफ़ी निराश है) को शांत करने के लिए और 'सुधार' लागू करने का प्रस्ताव करेंगे ताकि 'ईज़ ऑफ़ डूइंग बिज़नेस' बढ़ सके. कॉर्पोरेट करों को हल्का किया जाएगा, जैसा उन्होंने वादा किया है.

लेकिन बाहरी आर्थिक वातावरण प्रतिकूल ही रहेगा क्योंकि विश्व का ज़्यादातर हिस्सा क़रीब सात साल पहले शुरू हुई महामंदी में फिर डूबने जा रहा है. भारत के निर्यात लगातार 14 महीने से गिर रहे हैं. अमरीकी डॉलर के मुक़ाबले रुपए की क़ीमत निकट भविष्य में अपने निम्नतम स्तर पर गिर सकती है.

कमज़ोर रुपए से देश का निर्यात महँगा हो जाएगा और इसे ज़्यादा प्रतियोगिता का सामना करना पड़ेगा. ऐसा सिर्फ़ इसलिए नहीं हो रहा है कि जो हम विदेशों में बेचना चाहते हैं उसके कुछ ख़रीदार मौजूद हैं.

इसलिए जब यह तय करना ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है कि कौन देशद्रोही है और कौन सच्चा देशभक्त तो अर्थव्यवस्था की परवाह कौन करता है.

Featured Book: As Author
Sue the Messenger
How legal harassment by corporates is shackling reportage and undermining democracy in India
 
Featured Book: As Publisher
Loose Pages
Court Cases That Could Have Shaken India
  • Authorship: Co-authored with Sourya Majumder
  • Publisher: Paranjoy
  • 376 pages
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